Friday, March 27, 2015

छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग 2015 सम्मलेन बिलासपुर मे सफल भागीदारी


माँ की महिमा


माँ ! हम आये तेरे शरण में ,नित छुएं चरण, मम निवेदन स्वीकार करो !
यही है भाव भजन, मन लगी लगन, मम-जीवन निर्माण करो !

हम सब बाल  पौधे माँ ! तू मा
मालिन साथ है |
तू जननी !हम लाल ,
सब तेरे हाथ हैं ||
जग सृजनी !  दे तूं जैसी आकृत,
सब तेरा प्रत्युपकार हैं |
 हम सब कच्ची मिटटी,
 तू सबका कुम्भकार है ||
तू भू की रानी!  ,तू अम्बर की न्यारी माँ |
तुझमे बसी दुनिया सारी।
  तुझमे तरी दुनिया सारी माँ ।।
हे स्नेहमयी माँ  ! 
तेरी गोद में हमने सोया |
तेरी आचंल में हमने खाया !
तेरी आँचल में हमने खेला !
तुझ संग मिलकर हमने रोया !
 तूने हमे कहा - आँखों का तारा !
हमने तुझे कहा – ध्रुव का तारा !!
' राम-कृष्ण, भीष्म –युधिष्ठिर तूने बनाया ||
सच है की कर्ण – अर्जुन, बुध्द-महावीर तूने ही बनाया |
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार
हे नित्य माता ! तूने ही शंकर – रामानुजन, गाँधी – मालवीय
सबको हिय का अमीरस पिलाया ||
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार........
हे माँ ! हमे भी शरण दो, मन की कुबुद्धि हर दो |
हे वर दायिनी वर दो , जीवन धीर – वीर कर दो |
माँ ! मेरे जीवन की बगिया, नित्य खिलती रहे |
तुझ से बनी सांसों की डोरियाँ चलती रहें ||
माँ ! तू बस इतना करम कर दो |
निज वत्स का इतना धरम कर दो ||
हमे झुकाएं शीश, तूं हमें शुभाशीष दे दो ||

Monday, March 9, 2015

मेरी आवाज़


मेरे मुख-मंडल में सिर्फ एक ही बात का मसला लगा रहता है । दिनों-दिन हो रहे दंगा-फसाद, चोरी-डकैती ..जैसे विषयों पर उलझा रहता हूँ आखिर ऐसे लूट पात कब तक चलेंगे ..? ऐसे में क्या हम अपने मंजिल तक पहुँचने में कामयाब हो पाएंगे  ? हम मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी प्रकृति से जकड़ा है तब भी उन्हें अपना जीवन जीने में लफडा है क्यों ? क्योंकि हम सबको यह भय है कि हमारे साँसों की डोरिया कब बंद हो जाएगी।
       " मैं देश के हित में जान गुमा दूं ,चेहरे पर काली पट्टी बांध कर नाम बदल दूं  किन्तु अपनी आवाज़ को नहीं बदल सकता...  'ये मेरी आवाज़' देश व समाज में सुरीति लाना चाहती है, एक नया परिवर्तन लाना चाहती है जिससे देश व समाज की संस्कृति कायम रह सके . स्वदेश को एक अखंड देश बनाने के साथ हिमालय के सदृश देश का गौरव  ऊँचा  कर सकें ।
     मेरे  मन की आवाज़ के साथ उन गरीबों की भी आवाज़ है जो सामने कहने से कतराते हैं कह नहीं सकते ... पर मेरा मन ऐसा ही कहता है। ये आवाज आपकी हमसाया बन कर , देश की पहचान बनकर शास्वत (अमर) रहेगी । 
            ऐसा स्वदेश नवनिर्मित होना आकाश में कुशुम नहीं है . अगर प्रथम गुरु ( माता-पीता ) अपने बच्चों को अच्छी सीख दें . मैं कब तक देश की दयनीय दशा देखकर इन आँखों से आंशु बहाऊंगा  ? मैं कब तक देश व समाज के बोझ को कन्धों का सहारा दूंगा . आखिर कब तक ? जब तक मेरी साँसों की डोरियाँ सजेंगी और  ये आँखें दुनिया देखेगी तब तक बस न ।फिर आगे ...। आखिर उन्हें क्या मिलता है . किसी के जिंदगी के साथ मौत का खेल खेलने में ? बस देश व समाज की तौहीन .. और  क्या ? ऐसे ही भाव  मन में लाकर खोया रहता हूँ । मुझे नींद नहीं आती ...क्या हमारा जीवन इन कर्मों से महान होगा ? गर हमारे मन ,वचन और आचरण  पवित्र न हो।
        ' हमे अपना आचरण बदलना होगा और ऐसे आचरण रूपी ढाल को अपनाना होगा जिससे देश व समाज के संस्कृति की रक्षा हो सके । अंततः मेरी आशा है की एक दिन मेरे "मन की आवाज़" उनके मष्तिष्क में घडी सी घूमेगी अवश्य ।तब उनका ह्रदय भावुक होगा। एक दिन उनके भी ' दिन फिरेंगे ' तो भविष्य का सृजन करेंगे ।एक दिन जरुर ममत्व जागृत होगी ।तब मैं अपने दिल की नगरी में कह सकूंगा – “ईश्वर  की कृपा से सब कुशल है” ।





जीओ उनके लिए

जीओ उनके लिए 



            मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आंचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना। तब मेरा ह्रदय मर्मातक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा , हां अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।
     मैं जमाने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व को जागृत करुं। मैं शनै शनै सद मानुष के आंखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़ म व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षु जल ही जलधि बन पड़ी हैं फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित 
हो गया । मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने चक्षु जल से बने जल धि को रोक दिया ।क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था । जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आंचल पसारा
किन्तु अब मेरी सांसे लड़ खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़म व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।
         अतः हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास , आस लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आंख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ो के पैर बन जाओ और जीओ 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मा न्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?
     राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –
' जीना तो है उसी का , 
                   जिसने यह राज़ जाना है।
है काम आदमी का , 
            औरों के काम आना है ।।


यहा उनका भी 'दिल' जोड़ दो



यहां उनका भी दिल जोड़ दो
जिनके दिल टूटे हैं चलते कदम थमे हैं,
वो जीना जानते हैं ।
ना  जख्मों को सीना जानते हैं ।।
प्यारे तुम उन्हें भी अपना लो
मेरी बात मान विश्व बंधुत्व का भाव लेकर,
जन- जन से बैर भाव छोड दो ।
"यहा उनका भी दिल जोड़ दो"।।
 हम सब के ओ प्यारे,किस कदर हैं दूर किनारे 
जीत की भी आस रखते हैं वे मन मारे ?
ये मन मैले नहीं निर्मल हैं,सबल न सही निर्बल हैं,
समझते हैं हम जिन्हें नीचे हैं,
वे कदम दो कदम ही पीछे हैं,
जो हिला दे उन्हें ऐसी आंधी का रुख मोड़ दो ।
यहाँ उनका भी दिल  जोड़ दो ।।
दिल बिना क्या यह महफ़िल है,
क्या जीने के सपने हैं,
बेगाना कोई नहीं सब अपने हैं.
ये सब मन के अनुभव हैं,
नहीं हूँ अभी वो, पहले मैं था जो,
सुना था मैंने मरना ही दुखद है,
पर देखा लालसाओं के साथ जीना,
महा दुखद है.
फिर क्या है सुख ?
क्या जीवन सार ?
सुख है सब के हितार्थ में,
जीवन - सार है अपनत्व में,
ऐसा अपनत्व जो एक दूजे का दिल जोड़ दे।
कोई गुमनाम न हो नाम जोड़ दे ।।
वरना सब असार है चोला,
सब राम रोला भई सब राम रोला ।।   
                         यहां उनका भी दिल जोड़ दो - शिवराज आनंद