Monday, October 26, 2015

प्रेम - जगत १


                प्रेम-जगत १
    ( 'प्रेम - जगत' संसार का रंगमंच है और  हम सभी  इस रंगमंच के पात्र।)
    विज्ञो का ऐसा मत है कि 'आदि मानव' ने प्रेम की, आदिम आग की उष्णता से सृष्टिकी रचना की 'आदम और हौवा व ,मनु और शतरूपा ने बाव संवेदन धड़कते 'प्रेम भावना' के लिए स्वर्ग के संवेदन हित 'आनदं- रस' को नही,अपितु जगत के कठोर जीवन को अपनाया। 'ओ- ढोलमारो , लैला - मजनू , रोमियो -जुलियन ,हीर- रांझा , की प्रेम - कथाएं तो यही रेखांकित करती है की प्रेम ही जीवन का सार है, प्रेम विहीन जगत वीरान है|इसी प्रेम के 'वशीभूत '(जगत बनाने वाले) माता (प्रकृति)व पिता (पुरुष) जगत का निर्माण किया । अतः उन्हें मेरा सहस्त्रों बार प्रणाम ! 
परिवारिक सुख आकाश में घटाओ के सदृश होता है| सुख उत्पन्न होता है पर चिरकाल तक स्थिर नही होता उन घटाओं सदृश छिप जाता है । 
     'वर्षो से मेरे आँगन में एक 'अंगना'(स्त्री) नही जिससे मेरी आँगन सुनी है । 'ऐसा ही विचार  कर 'मनीलाल'  अपने पुत्र (मधुसूदन )का विवाह कर रहे हैं । असलबात मधुसूदन जब १० वर्ष का था, तब उसकी 'जन्म जननी' दुनिया से चल बसी । वह मां की ममता को न पा सका- मां की ममता उसके लिए आसमान के कुसुम हो गई ।
'मनीलाल' मंजोल गढ़ के एक ईमानदार पुरुष हैं । वे सबको 'एक आँख' से देखते हैं । 'पत्नी मृत्यु'  के बाद उनके आंखों से खून उतर आता,  बस याद आती , कमर तोड़ जाती ..। बस उसी के याद को भुलाने और दुःख के आंसु को सुख में बदलने के लिए ही वे अपने पुत्र का विवाह कर रहे है ।
मधुसूदन का विवाह सुमन के साथ हो रहा है । 'सुमन' एक सजीली लड़की है । वह विदित नारायण की पुत्री है । 'विदित नारायण' भले व नेक इंसान है ।वे 'प्रेमगढ़' के सकुशल व्याक्ति हैं ।आखिर एक दिन मधुसूदन की बारात प्रेमगढ़ के लिए निकल पड़तीं है और लोगों की इंतजार की घड़ियां ख़त्म हो जाती है ।
       'प्रेमगढ़' एक  मनभावन नगर है। , किन्तु 'मधुसूदन' की बारात ने उस नगर की ओर सजा  दिया है उस जन -संकुल नगर में अति चहल - पहल है । मधुसूदन के  माथे पर सुन्दर सेहरा है । जिससे मधुसूदन अति प्रसन्नचित है । वहां का विशद् ए नूर अनुपम है । धरती के आसमा तक शहनाइयों  की ध्वनि गूंज रही है , तारे - गण  आकाश में टिमटिमा रहे हैं मानों सबके  खुशीयों में झूम रहे हों । (कुछ देर बाद)  पुरोहितों द्वारा शिव ,गौरी व गणेश जी की पूजा कराइ जा रही है। वहीं सुहागिन स्त्रियों मंगल गान गा  रहीं हैं । जिससे आये सभी  कुटुम्ब जन आनंदित हो रहे हैं। (धीरे- धीरे द्वार  चार  की रीति- रस्म पूर्ण हो जाती हैं) वही एक सुंदर जनवास है जिसमे आये सभी बारातियों की मंडली क्रमशः बैठी है। उन सबकी नज़र (सामने) दूल्हे और दुल्हन पर एक टक लगी हैं । 'वे' सब उनके मुस्कान भरे चेहरे को देखकर बरबस ही मोहित हो रहें हैं। ख़ैर सुंदरता  किसे नही मोहित कर लेती ।
         आज 'सुमन'   बारहों भूषणों से सजी है । उसके  पैरों में नुपुर के साथ किन्किडि है । उसके 
हाथों में कंगन के साथ चूड़ियां हैं। उसके गले में कण्ठ श्री  है । बाहों में बसेर बिरिया के साथ बाजूबंद है । माथे  पर सुन्दर टिका के साथ शीश में शीश फूल है । उसे देख कर ऐसा लग रहा मानो 'सुमन' नंदन की परी हो.. जो श्रृंगार- रस और सौंदर्य का  मिलन हुआ है |
       अब प्रभात की सु मधुर बेला में 'सुमन' और 'मधुसूदन' सात फेरों के पवित्र बंधन में बंध रहें हैैं ।उनके इस बंधन के साक्षी अग्निदेव है । वहीं अपने कुलानुसार लाई -पर छन और नेक - चार  का रीति रस्म पूर्ण होता है। हालांकि 'सुमन' के अपने कोई भाई नहीं हैं तब भी 'मंगला' नाम का व्यक्ति अपने आप को सौभाग्य जान कर अपने हाथो से सुन्दर संबध जना रहा है । मानो सीता जी के लिए पृथ्वी  का पुत्र मंगल ग्रह आया हो। शनै - शनै विदाई की पुनीत घड़ी आन पड़ी है । जहा पूजनीय पिता 'विदित नारायण' के पांव न उठ रहे है ,और न ही टस से मस हो रहे हैं । वहीं दूसरी ओर मां 'सुनैना' की ममता टूट कर बिखरे पड़ी है । 
       'प्रेम - जगत'  का ' प्रेम ही अजूबा है जब 'सुमन' अपने पति के गले में वर माला  डाल रही थी तब सब की आंखें एक टक हो कर उस की ओर देख रहीं थीं। परन्तु अभी सबकी आंखे नम् है । किसी के मुख से कुछ भी शब्द निकलते  नहींं बनता मानों सौंदर्य ने श्रृंगार- रस छोड़ कर शांत - रस को अपना लिया हो । जो 'सुमन' कल तक अपने साथी - सहेलियों की प्रिया थी एक बाबुल की गुड़िया थी, बाबुल की 'प्रीत' रुपी बाहों में झूलकर कली से सुमन बनी...आज वही सुमन बाबुल की प्रीत में मुरझाकर बिदा हो रही है । खैर बगैर मुरझाये सुमन को बहारों का सुख कहा मिलेगा ? जब तक इस जगत में प्रेम रहेगा... तब तक सुमन को बहारों का सुख मिलता रहेगा ।चंद लम्हों के बाद विदित नारायण अपने दिल के टूकड़े को विदा कर देते हैं। 'सुमन' आंखों ही आंखों में देखते - देखते प्रेमांगन से दूर चली जाती है ।
         प्रेम -जगत २
'मनीलाल' कृत- कृत्य हो गए ,  जो उनके वर्षो की सुनी आंगन में' सुमन 'का जो आगमन हुआ । इस जगत में प्रेम भी अपने वेष को बदलता रहता है । जो 'मनीलाल' कल तक लोगों की सलामती चाहते थे वही 'मनीलाल' अनायास ही परलोक सिधार गए। सारा 'सुख', दुःख  में बदल गया जहाँ मधुसूदन की जिंदगी चांदनी रातों के समान चमक रही थी अब वहीं  खौफनाक अंधेरा सिर्फ अंधेरा …अब तो मधुसूदन के ऊपर पहाड़ सा टूट पड़ा। "अगर उसके मन में खुशी होता तो रात अंधेरा भी दीप्त सा लहक पड़ता" किन्तु  चांदनी रातों में दु खों का साया पड़ जाये तो उसे कौन रोशन करेगा ? वहीं मधुसूदन बिलख-बिलख कर रो रहा है। वहा आये सुजन गण विमन है। उन्हें मधुसूदन का रोना अच्छा नही लगता तो वे कह उठते हैं - "मत रो मधुसूदन ! मत रो, जो होनहारी है सो तो होगा ही ... किसी का भी संयोग से मिलन होता है और वियोग से बिछड़ना। हां मधुसूदन ये जिंदगी रोने के लिए नही है ।जीवन का प्रवाह जैसा बहता है तूं बहनें दे ।किन्तु तूं मत रो,रोना जगत के लिए पाप है । मरना सौ जन्मों के बराबर है जो अंतिम सच है । यह रोने की घड़ी नही है। तुमने बाल्यकाल में जिन कंधो को हाथी, घोडा और पालकी बनाकर अपार आनद उठाया था न, आज तुम्हें उन्हीं कंधो के मोल को अदा करना है इसलिए तुम भी अपने पिता (मनीलाल) को कन्धा दो ।
    'मनीलाल'  के परलोक सिधारते ही घर की आर्थिक स्थिति दुरुस्त नही रही । जहाँ मधुसूदन ऐसो आराम की जिंदगी जी रहा था...अब वहीं पहाड़ खोद -खोद कर चुहिया निकालने लगा , जिससे प्रेम -जाल में बंधे पत्नी (सुमन) और पुत्र  का पेट पल सके । 
         आखिर एक दिन मधुसूदन घर की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए घर से निकल गया बहुत दूर... वह जान से प्यारे पुत्र को ममत्व के छाव छोड़ गया जहां मां ( सुमन )की ममता आपार थी और पुनीत गोद विशाल ।'
ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है । जब मधुसूदन २ वर्ष तक घर नही आया, तब 'सुमन' नयन - जल लिए विलापती - ओह देव ! क्या ' मेरे पति देव जगत में कुशल भी हैं या उनसे मेरा नाता तोड़ दिया ? वह एक तरफ स्तमभित हो कर भगवान को दोष देती वहीं दूसरी तरफ अनुसूया जैसे पतिव्रता नारी धर्म का पालन भी करती।
पर उसे मालूम नही की इस संसार में कोई किसी को दुःख देने वाला नही है । सब अपने  ही  कर्मो का फल है 'सुमन, चार दिवारी के बाहर, विवर्ण मुख, अध:शिर किये बैठी है। उसकी आंखें नम् है व केस विच्छिन्न,जिससे फेस ढका है । "सूर्य की लालिमा उसके तन पर पड़ रहे हैं तब भी वह दुखों की काली सागर में डूबी जा रही है मानो अब उस अबला के लिए तड़पना ही  उसका सफर बन गया हो। वह जैसे पति- प्रतिक्षा में बिकल है वैसे ही प्रकृति भी अपने अनमोल छटा से विचल है । वह बारम्बार  विधाता को दोष देती और कहती - हां ,देव !  तूं सच-सच बता.. तूने मेरे ख्वाबों इरादों को पत्थर तो नही बना दिया ? क्या सूर्य के बिना दिन और चंद्रमा के बिना रात शोभा पा  सकते है ? नही न... फिर मै अपने पति के बिना कैसे शोभा पा सकती हूं ? क्या तुझे एक दूजे की जुदाई का तजुर्बा नही... अगर नही, तो इस  " प्रेम - जगत "में 'आ'...और आकर देख ... तेरे बनाये इस कठोर धरती पर, तेरा ये मिट्टी का खिलौना (पुतला) एक प्रेम के लिए कितना 'अधीर'है । कि  'कास हमें मुठ्ठी भर प्रेम मिल जाता तो हमारे इस मिटटी के खिलौने में जान आ जाता … । आगे  वह कहने लगी -'अब दिन फिरेंगे' तो जी भर के देखूंगी ।' हां देव !अब विलम्ब न कर ...उन्हें घर के चौखट तक ला दे । ये तुमसे मेरी आर्तनाद है और एक दुहाई भी।' हां लोगो को यह भ्रम है  कि मैंने अपने पति  (मधुसूदन )को घर से तू- तू ,मै -मै कर और मुह फुलाकर निकाल  दिया है।पर तुम तो सर्वज्ञ हो तुम्हें मालूम है कि "मै उन्हें सप्रेम गले मिलाकर  किस्मत बनाने और जिंदगी  सवारने के लिए भेजा है।
          अतः ये आंखे उनकी प्रतीक्षा में कब से राह सजाये खड़ी है । अंततः एक दिन मधुसूदन बीते हुए मौसम की तरह अपने पत्नी सुमन के पास लौट आया  और पति से गले लगते ही  सुमन झूम उठी मानों बहारों के आने पर मुरझाई कली खिल रही हो ।
     मधुसूदन हंसते हुए पूछा- क्या हुआ सुमन ? तूम इतनी बेचैन क्यों हो ? क्या मै इस  प्रेम -जगत में आकर सचमुच खो गया था ? अगर हाँ मै खो गया था तो क्या मेरा प्रेम भी इस जगत से खो गया था ? इन  सवालों के ज़वाब सुमन न दे सकी और अपने बहारों में महकने लगी ।
                                               शिवराज आनंद 
     


Friday, March 27, 2015

छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग 2015 सम्मलेन बिलासपुर मे सफल भागीदारी


माँ की महिमा


माँ ! हम आये तेरे शरण में ,नित छुएं चरण, मम निवेदन स्वीकार करो !
है यही भाव- भजन, मन लगी- लगन, मम-जीवन निर्माण करो !

हम सब बाल  पौधे माँ ! तू माँ
मालिन साथ है |
तू जननी !हम लाल ,
सब तेरे हाथ हैं ||
जग सृजनी !  दे तूं जैसी आकृत,
सब तेरा प्रत्युपकार हैं |
 हम सब कच्ची मिटटी,
 तू सबका कुम्भकार है ||
तू भू की रानी!  ,तू अम्बर की न्यारी माँ |
तुझमे बसी दुनिया सारी।
  तुझमे तरी दुनिया सारी ।
हे स्नेहमयी माँ  ! 
तेरी गोद में हमने सोया |
तुझ संग मिलकर हमने रोया
तेरी आचंल में हमने खेला!
तेरी आँचल में हमने खाया !
 तूने हमे कहा - आँखों का तारा !
हमने तुझे कहा – ध्रुव का तारा !!
' राम-कृष्ण, भीष्म –युधिष्ठिर तूने बनाया ||
सच है की कर्ण – अर्जुन, बुध्द-महावीर तूने ही बनाया |
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार
हे नित्य माता ! तूने ही शंकर – रामानुजन, 
गाँधी – मालवीय,  हिय का अमीरस पिलाया ||
तेरी महिमा अपार माँ ! तेरी महिमा अपार........
हे माँ ! हमे भी शरण दो, मन की कुबुद्धि हर दो |
हे वर दायिनी वर दो , जीवन धीर – वीर कर दो |
माँ ! मेरे जीवन की बगिया, नित् खिलती रहे |
तुझ से बनी सांसों की डोरियाँ चलती रहें ||
माँ ! तू बस इतना करम कर दे|
निज वत्स का इतना धरम कर दे ||
हमे झुकाएं शीश, तूं हमें शुभाशीष देदे  ||
                                    -  शिवराज आनंद 

Monday, March 9, 2015

मेरी आवाज़


मेरे मुख-मंडल में सिर्फ एक ही बात का मसला लगा रहता है । दिनों-दिन हो रहे दंगा-फसाद, चोरी-डकैती ..जैसे विषयों पर उलझा रहता हूँ आखिर ऐसे लूट पात कब तक चलेंगे ..? ऐसे में क्या हम अपने मंजिल तक पहुँचने में कामयाब हो पाएंगे  ? हम मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी प्रकृति से जकड़ा है तब भी उन्हें अपना जीवन जीने में लफडा है क्यों ? क्योंकि हम सबको यह भय है कि हमारे साँसों की डोरिया कब बंद हो जाएगी।
       " मैं देश के हित में जान गुमा दूं ,चेहरे पर काली पट्टी बांध कर नाम बदल दूं  किन्तु अपनी आवाज़ को नहीं बदल सकता...  'ये मेरी आवाज़' देश व समाज में सुरीति लाना चाहती है, एक नया परिवर्तन लाना चाहती है जिससे देश व समाज की संस्कृति कायम रह सके . स्वदेश को एक अखंड देश बनाने के साथ हिमालय के सदृश देश का गौरव  ऊँचा  कर सकें ।
     मेरे  मन की आवाज़ के साथ उन गरीबों की भी आवाज़ है जो सामने कहने से कतराते हैं कह नहीं सकते ... पर मेरा मन ऐसा ही कहता है। ये आवाज आपकी हमसाया बन कर , देश की पहचान बनकर शास्वत (अमर) रहेगी । 
            ऐसा स्वदेश नवनिर्मित होना आकाश में कुशुम नहीं है . अगर प्रथम गुरु ( माता-पीता ) अपने बच्चों को अच्छी सीख दें . मैं कब तक देश की दयनीय दशा देखकर इन आँखों से आंशु बहाऊंगा  ? मैं कब तक देश व समाज के बोझ को कन्धों का सहारा दूंगा . आखिर कब तक ? जब तक मेरी साँसों की डोरियाँ सजेंगी और  ये आँखें दुनिया देखेगी तब तक बस न ।फिर आगे ...। आखिर उन्हें क्या मिलता है . किसी के जिंदगी के साथ मौत का खेल खेलने में ? बस देश व समाज की तौहीन .. और  क्या ? ऐसे ही भाव  मन में लाकर खोया रहता हूँ । मुझे नींद नहीं आती ...क्या हमारा जीवन इन कर्मों से महान होगा ? गर हमारे मन ,वचन और आचरण  पवित्र न हो।
        ' हमे अपना आचरण बदलना होगा और ऐसे आचरण रूपी ढाल को अपनाना होगा जिससे देश व समाज के संस्कृति की रक्षा हो सके । अंततः मेरी आशा है की एक दिन मेरे "मन की आवाज़" उनके मष्तिष्क में घडी सी घूमेगी अवश्य ।तब उनका ह्रदय भावुक होगा। एक दिन उनके भी ' दिन फिरेंगे ' तो भविष्य का सृजन करेंगे ।एक दिन जरुर ममत्व जागृत होगी ।तब मैं अपने दिल की नगरी में कह सकूंगा – “ईश्वर  की कृपा से सब कुशल है” ।





जियो उनके लिए

जियो उनके लिए 
         मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आंचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना। तब मेरा ह्रदय मर्मातक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा , हां अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।
     मैं जमाने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व को जागृत करुं। मैं शनै शनै सद मानुष के आंखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़ म व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षु जल ही जलधि बन पड़ी हैं फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित 
हो गया । मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने चक्षु जल से बने जल धि को रोक दिया ।क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था । जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आंचल पसारा
किन्तु अब मेरी सांसे लड़ खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़म व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।
         अतः हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास , आस लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आंख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ो के पैर बन जाओ और जियो 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मा न्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?
     राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –
' जीना तो है उसी का , 
                   जिसने यह राज़ जाना है।
है काम आदमी का , 
            औरों के काम आना है ।।


यहा उनका भी 'दिल' जोड़ दो



यहां उनका भी दिल जोड़ दो
जिनके दिल टूटे हैं चलते कदम थमे हैं,
वो जीना जानते हैं ।
ना  जख्मों को सीना जानते हैं ।।
प्यारे तुम उन्हें भी अपना लो
मेरी बात मान विश्व बंधुत्व का भाव लेकर,
जन- जन से बैर भाव छोड दो ।
"यहा उनका भी दिल जोड़ दो"।।
 हम सब के ओ प्यारे,किस कदर हैं दूर किनारे 
जीत की भी आस रखते हैं वे मन मारे ?
ये मन मैले नहीं निर्मल हैं,सबल न सही निर्बल हैं,
समझते हैं हम जिन्हें नीचे हैं,
वे कदम दो कदम ही पीछे हैं,
जो हिला दे उन्हें ऐसी आंधी का रुख मोड़ दो ।
यहाँ उनका भी दिल  जोड़ दो ।।
दिल बिना क्या यह महफ़िल है,
क्या जीने के सपने हैं,
बेगाना कोई नहीं सब अपने हैं.
ये सब मन के अनुभव हैं,
नहीं हूँ अभी वो, पहले मैं था जो,
सुना था मैंने मरना ही दुखद है,
पर देखा लालसाओं के साथ जीना,
महा दुखद है.
फिर क्या है सुख ?
क्या जीवन सार ?
सुख है सब के हितार्थ में,
जीवन - सार है अपनत्व में,
ऐसा अपनत्व जो एक दूजे का दिल जोड़ दे।
कोई गुमनाम न हो नाम जोड़ दे ।।
वरना सब असार है चोला,
सब राम रोला भई सब राम रोला ।।   
                   यहां उनका भी दिल जोड़ दो - शिवराज आनंद 
       

Saturday, January 31, 2015

हम कलियुग के प्राणी हैं

शिवराज आनंद

नाम: शिवराज आनंद (मूल नाम: शिव कुमार साहू) जन्म स्थान: सोनपुर, विकास खण्ड -रामानुज नगर  जिला -सूरजपुर छत्तीसगढ़ 497229 जन्म तिथि: 04 मई 1987...